May 26, 2012

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सोच को प्रशस्त बनाएं


बालोतरात्न मनुष्य एक क्रियाशील प्राणी है। वह किसी न किसी क्रिया में संलग्न रहता है। सामान्यतया आदमी निष्क्रिय नहीं बैठ सकता। श्रीमद् भगवद् गीता का कथन है, नहि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्मण्यशेषत:। सामान्य शरीर धारी प्राणी संपूर्ण क्रिया को छोड़ दे यह संभव नहीं है। प्रश्न उठता है कि आदमी सबसे अधिक कौनसी क्रिया करता है? प्रयोग और परीक्षण के आधार पर यह निष्कर्ष सामने आया कि मनुष्य सबसे अधिक सोचने की क्रिया करता है। सोचना एक ऐसी क्रिया है जो हर क्रिया के साथ संपृक्त रह सकती है। व्यक्ति चलते समय सोचता है। खाते समय विचारों के उपवन में घूमता है। यहां तक की व्यक्ति नींद में भी चिंतन मुक्त नहीं रहता। एक जिज्ञासु ने किसी दार्शनिक से चार प्रश्न पूछे। उसका पहल प्रश्न था, इस जगत में सबसे बड़ा कौन है? उत्तर मिला, आकाश। दूसरी जिज्ञासा थी, संसार में सबसे आसान काम क्या है? संयत स्वर उभरा, बिना मांगे सलाह देना। तीसरी समस्या रखी गई, विश्व में सबसे कठिन काम क्या है? प्रत्युत्तर में कहा गया, अपनी पहचान। अंतिम प्रश्न था, दुनिया में सबसे अधिक गतिशील क्या है? दार्शनिक ने कहा- विचार।

वैचारिक गतिशीलता: वस्तुत: विचार सबसे अधिक गतिशील होता है। मन का कार्य है, स्मृति, चिन्तन और कल्पना। मन एक क्षण में कहीं का कहीं पहुंच जाता है। सोचने का, चिंतन का सिलसिला निरंतर चलता रहता है। सामान्य आदमी का मन किसी एक आलंबन पर स्थिर नहीं रहता। वह चंचल है, व्यग्र है, विचरणशील है इसलिए सामान्यतया वह पकड़ में नहीं आता। श्रीमद् भगवद् गीता में अर्जुन और श्रीकृष्ण के संवाद से भी यह कथ्य ध्वनित होता है। अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं-

चंचलं हि मन: कृष्ण! प्रमाथि बलवद् दृढ़म्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।

हे कृष्ण! यह मन चंचल है, हठी है, बलवान है। इसको मैं वश में करना चाहता हूं लेकिन मुझे लगता है कि जैसे हवा को वश में करना मुश्किल है वैसे ही इस मन को भी वश करना में मुश्किल है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन के विचार के साथ सहमति प्रकट करते हुए समाधान की भाषा में कहा-

असंशयं महाबाहो! मनो दुर्निग्रहं चलम्।

अभ्यासेन तु कौन्तेय! वैराग्येण च गृह्यते।।

हे अर्जुन! नि:संदेह मन चंचल है और उसे वश में करना कठिन है पर निराश होने की अपेक्षा नहीं है। अभ्यास और वैराग्य, इन दो उपायों के द्वारा मन का निग्रह किया जा सकता है। बहुधा देखा जाता है कि आदमी मन की बैसाखी के सहारे ही चलता है और वह आलंबन कभी-कभी उसके लिए खतरे की घंटी भी बन जाता है। मन की चंचलता से मनुष्य व्यथित है।

आचार्य महाश्रमण


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