May 12, 2012

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श्रावक वही जिसमें त्याग व संयम हो



धर्मसभा में आचार्य महाश्रमण ने संवर व आश्रव की व्याख्या की
बालोतरा JTN 12 मई २०१२ जैन तेरापंथ न्यूज ब्योरो के लिए

नए तेरापंथ भवन में शुक्रवार को धर्मसभा में आचार्य महाश्रमण ने संवर की व्याख्या करते हुए कहा कि आश्रव के ठीक विपरीत संवर है। आश्रव रूपी नाले को अवरूद्ध कर दिया जाता है तो संवर निष्पन्न हो जाता है। संवर की साधना बढऩे से गुण स्थानों का स्थान बढ़ता है। संवर की साधना गुण स्थानों के क्रम में आगे बढ़ाने वाली होती है।

आचार्य ने कहा कि गुरुदेव तुलसी व गुरुदेव महाप्रज्ञ ने कइयों को संयम रत्न प्रदान किया है। श्रावक भी बारह व्रत जैसे व्रतों को स्वीकार कर आंशिक व्रत साधना करते हैं। श्रावक को त्यागी व संयमी बनने का प्रयास करना चाहिए। छोटे-छोटे व्रत जीवन में आने पर व्यक्ति का जीवन धन्य हो जाता है। धर्म का थोड़ा-सा अंश भी भय से उबारने वाला होता है। उन्होंने कहा कि व्यक्ति को असंयम से संयम की ओर ले जाना बड़ी बात है। इससे जीवन पवित्र बनता है। उन्होंने प्रेरणा देते हुए कहा कि व्यक्ति त्याग व संयम से दुर्गुणों से मुक्त रह सकता है। संवर को मोक्ष का कारण बताते हुए आचार्य ने कहा कि संवर की साधना पुष्ट होती है तो निर्जरा भी होती है। इसलिए साधना के क्षेत्र में आगे बढऩे वाले को संवर की साधना को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। मंत्री मुनि सुमेरमल ने राग-द्वेष को पाप बताते हुए कहा कि व्यक्ति इनके वशीभूत कोई काम करता है तो उसके कर्मों का बंधन होता है। व्यक्ति द्वेष मुक्त बनने के साथ रागमुक्त बनने का भी प्रयास करें, क्योंकि राग नहीं छूटने पर व्यक्ति सूक्ष्म ग्रंथि से बंधा रहता है। इसलिए व्यक्ति राग-द्वेष, अहंकार-ममकार, आसक्ति से दूर रहता हुआ अध्यात्म की दिशा में आगे बढऩे का प्रयास करे। कार्यक्रम की शुरुआत में मुनि विजयकुमार ने गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम के अंत में मंजू देवी ओस्तवाल ने अठाई तप का व्याख्यान किया। गगन जीरावला ने गीत की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम का संचालन हिमांशु कुमार ने किया।
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