Feb 1, 2013

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सदा दिवाली संत के आठों प्रहर आनन्द




सदा दिवाली संत के आठों प्रहर आनन्द, यह एक अति प्रचलित पुरानी कहावत है, जिसका भावार्थ है-साधु जन के तो सदैव पर्व और आनन्द होता है, वे इन बाह्य पर्वों या आनन्दों को क्या मनाये? परन्तु यह कहावत-गृहस्थों द्वारा मनाये जाने वाले पर्वों से साधु को अलग रहा चाहिये, क्योंकि वे भौतिक सुख-सामग्री और शारीरिक आनन्दोल्लास के ही प्राय: द्योतक होते हैं-इस भावना को प्रकट करने के लिये है। आध्यात्मिक पर्व तो लक्ष्य को और भी नजदीक लाने में सहायक होते हैं-गति को बल देना अध्यात्म में भी आवश्यक होता है और वह बल पर्व देते हैं इसमें तनिक भी सन्देह नहीं।


पर्यूषण, सम्वत्सरी आदि जैनों के ऐसे ही पर्व हैं जो प्रत्येक व्यक्ति को जागरूक रख कर क्षमाशील और अद्वेषी बनाने की प्रेरणा देते हैं। अध्यात्म-पर्व, आत्म-जागरण, स्तवन, ध्यान, चिन्तन तथा तपश्चर्या आदि के द्वारा ही मनाये जाते हैं। तेरापंथ में उपर्युक्त पर्यूषण आदि पर्व तो मनाये ही जाते हैं पर इनके सिवाय और भी तीन पर्व मनाये जाते हैं-जिन्हें महोत्सव कहते हैं। ये तीनो महोत्सव अपना अलग-अलग महत्त्व रखते हैं। तेरापंथ की प्रगति और संगठन में इन महोत्सवों का भी बहुत बडा सम्माननीय स्थान रहा है। इन तीनों को क्रमश: पट्टोत्सव, चरमोत्सव और मर्यादा महोत्सव कहा जाता है। तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्री जयाचार्य में शासन-हित की दृष्टि से इनका सूत्रपात किया था। पट्टोत्सव का प्रारम्भ सम्वत् १९११ में, चरमोत्सव का सम्वत् १९१४ में और मर्यादा महोत्सव का सम्वत् १९२१ में हुआ था। तब से आज तक उत्तरोत्तर ब‹ढते हुए हर्ष के साथ प्रतिवर्ष ये महोत्सव मनाये जाते रहे हैं।



मर्यादा महोत्सव माघ शुक्ला सप्तमी के दिन मनाया जाता है। इसे माघ महोत्सव भी कहते हैं। यह दिन तेरापंथ के विधान की पूर्णता का दिन है। इस अवसर पर तेरापंथ का प्राय: समूचा साधु-संघ आचार्य श्री द्वारा पूर्व निर्दिष्ट किसी एक क्षेत्र में एकत्रित होता है। विगत वर्ष में किया गया कार्य आचार्य देव से निवेदित किया जाता है और आगामी वर्ष के लिये एक कार्यक्रम निर्धारित किया जाता है। साधु-साध्वियों के विहार तथा चातुर्मास के क्षेत्र भी आचार्य देव द्वारा प्राय: इसी समय निर्णीत किये जाते हैं। साधुओं में परस्पर विचार गोष्ठियां होती रहती हैं, जिनमें संघ की आन्तरिक व बाह्य स्थितियों पर तथा सैद्धान्तिक, दार्शनिक या साहित्यिक विषयों पर विचार-विनिमय किया जाता है। सारांष यह है कि माघ-महोत्सव तेरापंथ की प्रवृत्ति का केन्द्र बना हुआ है।

चातुर्मास समाप्ति से लेकर माघ शुक्ला ७ तक के दिन तेरापंथ संघ के लिये बहुत ही उपयोग के हो जाते हैं। आचार्य देव की शिक्षाओ विचार गोष्ठियों तथा प्रतियोगिताओं आदि द्वारा ये दिन इतने व्यस्त कार्यक्रम के होते हैं कि समय की कमी अखरे बिना नहीं रहती।

सप्तमी के दिन आचार्य श्री द्वारा मर्यादाओं का वाचन होता है। और तेरापंथ संघ को उन मर्यादाओं में अडिग रूप से चलने की प्रेरणा दी जाती है। स्वयं स्वामीजी के हाथ से लिखा हुआ मर्यादा पत्र जिसके आधार पर यह महोत्सव मनाया जाता है सबको दिखलाया जाता है। इस अवसर पर साधु-साध्वियों के भाषण, कविताएँ आदि भी होती हैं।


तेरापंथ संघ अपने शासन के विधान को बहुत ही पवित्र दृष्टि से देखता है। क्योंकि वह जानता है कि एक आचार, एक विचार और एक आचार्य की लाभदायक पद्धति को स्थिर बनाये रखने के लिये विधान के प्रति श्रद्धालु होना अत्यन्त आवश्यक है। विधान की वफादारी ही संघ-ऐक्य की प्रथम शर्त हुआ करती है। अत: प्रत्येक साधु साध्वी को विधान में लिखित मर्यादाओं का प्रतिज्ञाबद्ध होकर पालन करना होता है। कोई भी व्यक्ति इसमें अपने लिये अपवाद प्राप्त नहीं कर सकता। महोत्सव के दिनों में नई मर्यादाओं के निर्माण तथा पूर्व मर्यादाओं में परिवर्तन सम्बन्धी समयानुकूल अनेक सुझाव भी आचार्य श्री के सम्मुख प्रस्तुत किये जाते हैं। उनमें से उपयोगी सुझावों पर आवश्यकतानुसार विचार-विमर्श के बाद आचार्य श्री स्वीकृति प्रदान करते हैं और समस्त साधु-साध्वी संघ में तद्विषयक लिखित घोषणा करते हैं। तब वह मर्यादा के रूप में विधान का एक अपरिहार्य अंग बन जाती है। कुछ प्राचीन परम्परायें अलिखित होते हुए भी मर्यादा के समक्ष मानी जाती हैं और उनका पालन भी विधान के समान ही अपरिहार्य होता है।


माघ शुक्ला सप्तमी के दिन ही एक हाजरी का आयोजन भी होता है। जिसमें साधु और साध्वियां पर्यायक्रम से ख‹डे होकर लेख पत्र में लिखित मर्यादाओं की शपथ लेते हैं।

महोत्सव सम्पन्न होने के बाद शीघ्र ही साधु-साध्वियों के विहार प्रारम्भ हो जाते हैं और वे प्राय: अपने-अपने गन्तव्य स्थानों की ओर आगामी महोत्सव में सम्मिलित होने की गांठ बांधकर चल प‹डते हैं।
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